सद्भाव की राजनीति के एक युग का अंत : अजय सिंह  - विनम्र श्रद्धांजलि स्वर्गीय बाबूलाल गौर को


भोपाल। मेरा स्वर्गीय बाबूलाल गौर से आत्मीय रिश्ता था। मेरे पिताजी दाउ अर्जुन सिंह से उनके गहरे रिश्ते थे।


आज की राजनीति में पक्ष-विपक्ष के बीच ऐसे मधुर, विकास और सद्भाव आधारित संबंधों पर बाबूलाल गौर के निधन से विराम लग गया। या यूं कहें कि आज से पूरी एक पीढ़ी हमारे प्रदेश से विदा हो गई। एक मजदूर नेता से प्रदेश के शीर्ष मुख्यमंत्री पद तक की उनकी यात्रा काफी संघर्षशील रही है। हाल ही की बीमारी के दिनों को छोड़ दें तो उनकी दिनचर्या सुबह 8 बजे से शुरू होती थी और रात तक वे सक्रिय रहते थे।


उनका जनता से जीवंत सतत जो संपर्क था वह आज के राजनेताओं के लिए उदाहरण है और प्रेरक है। वे सिर्फ वोट के खातिर ही जनता से संवाद नहीं करते थे बल्कि उनके अंदर एक जुनून था लोगों से मिलना और उनकी समस्याओं का निराकरण करना। उनके पक्ष-विपक्ष के नेताओं से बड़े मधुर संबंध थे। केन्द्र में जब कांग्रेस सरकार थी मंत्री, मुख्यमंत्री के रूप में वे अपने इन्हीं मधुर संबंधों का प्रदेश और भोपाल के विकास के लिए वे एक बड़ी राशि हासिल कर लेते थे। वे इतना दबाव बनाते थे कि दाउ अर्जुन सिंह हो या कमल नाथ जी हों कुछ न कुछ लेकर ही आते थे। एक राजनेता जिसका कोई स्व-हित नहीं था अपने प्रदेश अपने क्षेत्र के लिए यह समपर्ण अद्भुत था।



वे एक बेबाक और स्पष्टवादी नेता थे। दुर्भावना की राजनीति उनको छू भी नहीं पाई थी। कई मौकों पर वे पार्टी लाइन से मतभेद रखते थे तो स्पष्ट रूप से उसे बयां भी करते थे। जनहित उनके लिए जीवन पर्यन्त सर्वोपरि रहा। वे एक सख्त प्रशासक भी थे। मुख्यमंत्री-मंत्री के रूप में लाग-लपेट की बात नहीं बल्कि दो टूक बात करते थे। काम होगा की नहीं वह स्पष्ट रूप से बता देते थे। मदद का अवसर आता था तो उसमें वे कोई भेदभाव नहीं देखते थे।


आज पीरगेट, भोपाल टॉकिज चौराहा, फतेहगढ़ की जो स्थिति देख रहे हैं यह बाबूलाल गौर जी को देन है। एक समय था जब इन इलाकों में पैदल चलना दुरूह होता था। उन्होंने पूरी सख्ती के साथ इन इलाकों से अतिक्रमण हटाकर पुराने भोपाल के रहवासियों को बड़ी राहत दी थी। उस समय मेरे पिताजी दाउ अर्जुन सिंह विपक्ष में थे और गौर साहब पटवाजी के मंत्रिमंडल में नगरीय विकास मंत्री थे। तब उन्होंने गौर जी को बुलडोजर मंत्री की संज्ञा दी थी।



संसदीय व्यवस्था के प्रति उनका गहरा सम्मान था। सत्र के दौरान वे पूरे टाइम सदन में उपस्थित रहते थे। कार्यवाही में पूरी सक्रियता से भाग लेते थे। संसदीय परंपराओं-प्रक्रियाओं के वे ज्ञाता थे। बहस के दौरान कई बार वे संसदीय नियमों के हवाले से सत्ता पक्ष या विपक्ष को निरूत्तर कर देते थे। वे जनता की आवाज थे और उनके मुद्दों को पूरी मुखरता से उठाते थे।


मजदूर नेता के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की उन्होंने शुरूआत की थी। इसलिए गरीबों, जरूरतमंदों के लिए वे हमेशा समर्पित रहते थे। सदैव उनके साथ खड़े रहते थे। सद्भाव की राजनीति जरूर करते थे लेकिन अपनी पार्टी की नीतियों, सिद्धांतों से कभी डिगे न हीं। उनके प्रति उनकी निष्ठा जीवन पर्यन्त रही। उनका चले जाना उस पूरे युग का समाप्त हो जाना है जो लोगों के लिए जीता था जागता था और उठता था।